स्वर्णिम विजय दिवस : 1971 भारत-पाक युद्ध के 50 साल पूरे, जानिए युद्ध की पूरी कहानी
नई दिल्ली। आजादी के बाद से ही भारत की सरजमीं को हड़पने का प्रयास कर रहे पाकिस्तान को 16 दिसम्बर 1971 का दिन हमेशा टीस देता रहेगा। इस दिन भारत ने पाकिस्तान को वह जख्म दिया था, जिसे पाकिस्तान भुलाए नहीं भूल पाएगा। 1971 में इसी दिन पाकिस्तान के 90 हजार से अधिक सैनिकों ने अपने सेना प्रमुख जनरल नियाजी के साथ आत्मसमर्पण कर एक नया इतिहास रचा। भारत में 16 दिसंबर का दिन विजय दिवस के रूप में तो बांग्लादेश में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। बांग्लादेश ने नौ महीने के खूनी संघर्ष के बाद पाकिस्तान से आजादी पाई थी और इसमें भारत की निर्णायक भूमिका रही । एक नए और स्वतंत्र देश के रूप में भारत ने इसे तभी मान्यता दे दी थी। लेकिन बांग्लादेश को एक स्वतंत्र व संप्रभु देश के रूप में स्वीकार करने में पाकिस्तान को दो साल लग गए। 1971 के युद्ध के करीब दो साल बाद 1973 में ही पाकिस्तान की संसद में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया।
1971 के युद्ध में उत्तराखंडियों ने मनवाया था लोहा…
1971 का साल भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास में अमिट हो गया। 1971 में इसी दिन भारत-पाकिस्तान के बीच चला युद्ध 13 दिन के बाद समाप्त हुआ। भारतीय सेना की इस विजयगाथा में उत्तराखंड के रणबांकुरों के बलिदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध में उत्तराखंड के 255 सैनिकों ने बलिदान दिया था। रण में दुश्मन से मोर्चा लेते हुए उत्तराखंड के 78 सैनिक घायल हुए। इन रणबांकुरों के अदम्य साहस का लोहा पूरी दुनिया ने माना। इस जंग में दुश्मन सेना से दो-दो हाथ करने वाले सूबे के 74 जांबाजों को वीरता पदक मिले थे। शौर्य और साहस की यह गाथा आज भी भावी पीढ़ी में जोश भरती है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1971 में हुए युद्ध में दुश्मन सेना को नाको चने चबवाने में उत्तराखंड के जवान पीछे नहीं रहे। तत्कालीन सेनाध्यक्ष सैम मानेकशा (बाद में फील्ड मार्शल) और बांग्लादेश में पूर्वी कमान का नेतृत्व करने वाले सैन्य कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने भी प्रदेश के वीर जवानों के साहस को सलाम किया। युद्ध में शरीक होने वाले थलसेना, नौसेना व वायुसेना के तमाम योद्धा जंग के उन पलों को याद कर जोशीले हो जाते हैं।
भारत-पाकिस्तान 1971 युद्ध की पूरी कहानी…
शेख मुजीबुर रहमान पूर्वी पाकिस्तान की स्वायत्ता के लिए शुरू से संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने इसके लिए छह सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की थी। इन सब बातों से वह पाकिस्तानी शासन की आंख की किरकिरी बन चुके थे। साथ ही कुछ अन्य बंगाली नेता भी पाकिस्तान के निशाने पर था। उनके दमन के लिए और बगावत की आवाज को हमेशा से दबाने के मकसद से शेख मुजीबुर रहमान और अन्य बंगाली नेताओं पर अलगाववादी आंदोलन के लिए मुकदमा चलाया गया। लेकिन पाकिस्तान की यह चाल खुद उस पर भारी पड़ गई। मुजीबुर रहमान इससे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की नजर में हीरो बन गए। इससे पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया और मुजीबुर रहमान के खिलाफ षड्यंत्र के केस को वापस ले लिया।
पाकिस्तान में 1970 का चुनाव…
पाकिस्तान में 1970 का चुनाव बांग्लादेश के अस्तित्व के लिए काफी अहम साबित हुआ। इस चुनाव में मुजीबुर रहमान की पार्टी पूर्वी पाकिस्तानी अवामी लीग ने जबरदस्त जीत हासिल की। पूर्वी पाकिस्तान की 169 से 167 सीट मुजीब की पार्टी को मिली। 313 सीटों वाली पाकिस्तानी संसद में मुजीब के पास सरकार बनाने के लिए जबरदस्त बहुमत था। लेकिन पाकिस्तान को कंट्रोल कर रहे पश्चिमी पाकिस्तान के लीडरों और सैन्य शासन को यह गवारा नहीं हुआ कि मुजीब पाकिस्तान पर शासन करें। मुजीब के साथ इस धोखे से पूर्वी पाकिस्तान में बगावत की आग तेज हो गई। लोग सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने लगे। पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान ने पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह को कुचलने के लिए सेना को बुला लिया।
पाक सेना का अत्याचार…
पूर्वी पाकिस्तान में आजादी का आंदोलन दिन ब दिन तेज होता जा रहा था। पाकिस्तान की सेना ने आंदोलन को दबाने के लिए अत्याचार का सहारा लिया। मार्च 1971 में पाकिस्तानी सेना ने क्रूरतापूर्वक अभियान शुरू किया। पूर्वी बंगाल में बड़े पैमाने पर अत्याचार किए गए। हत्या और रेप की इंतहा हो गई। मुजीब को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी और टॉर्चर से बचने के लिए बड़ी संख्या में अवामी लीग के सदस्य भागकर भारत आ गए। शुरू में पाकिस्तानी सेना की चार इन्फैंट्री ब्रिगेड अभियान में शामिल थी लेकिन बाद में उसकी संख्या बढ़ती चली गई। भारत में शरणार्थी संकट बढ़ने लगा। एक साल से भी कम समय के अंदर बांग्लादेश से करीब 1 करोड़ शरणार्थियों ने भागकर भारत के पश्चिम बंगाल में शरण ली। इससे भारत पर पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बढ़ गया।
भारत का हस्तक्षेप…
माना जाता है कि मार्च 1971 के अंत में भारत सरकार ने मुक्तिवाहिनी की मदद करने का फैसला लिया। मुक्तिवाहिनी दरअसल पाकिस्तान से बांग्लादेश को आजाद कराने वाली पूर्वी पाकिस्तान की सेना थी। मुक्तिवाहिनी में पूर्वी पाकिस्तान के सैनिक और हजारों नागरिक शामिल थे। 31 मार्च, 1971 को इंदिरा गांधी ने भारतीय सांसद में भाषण देते हुए पूर्वी बंगाल के लोगों की मदद की बात कही थी। 29 जुलाई, 1971 को भारतीय सांसद में सार्वजनिक रूप से पूर्वी बंगाल के लड़कों की मदद करने की घोषणा की गई। भारतीय सेना ने अपनी तरफ से तैयारी शुरू कर दी। इस तैयारी में मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को प्रशिक्षण देना भी शामिल था।
अक्टूबर-नवंबर, 1971 के महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने यूरोप और अमेरिका का दौरा किया। उन्होंने दुनिया के लीडरों के सामने भरत के नजरिये को रखा। लेकिन इंदिरा गांधी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के बीच बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। निक्सन ने मुजीबुर रहमान की रिहाई के लिए कुछ भी करने से हाथ खड़ा कर दिया। निक्सन चाहते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार को दो साल का समय दिया जाए। दूसरी ओर इंदिरा गांधी का कहना था कि पाकिस्तान में स्थिति विस्फोटक है। यह स्थिति तब तक सही नहीं हो सकती है जब तक मुजीब को रिहा न किया जाए और पूर्वी पाकिस्तान के निर्वाचित नेताओं से बातचीत न शुरू की जाए। उन्होंने निक्सन से यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान ने सीमा पार (भारत में) उकसावे की कार्रवाई जारी रखी तो भारत बदले कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा।
भारत पर हमला और युद्ध की शुरुआत…
पूर्वी पाकिस्तान संकट विस्फोटक स्थिति तक पहुंच गया। पश्चिमी पाकिस्तान में बड़े-बड़े मार्च हुए और भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की मांग की गई। दूसरी तरफ भारतीय सैनिक पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर चौकसी बरते हुए थे। 23 नवंबर, 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान ने पाकिस्तानियों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की वायु सेना ने भारत पर हमला कर दिया। भारत के अमृतसर और आगरा समेत कई शहरों को निशाना बनाया। इसके साथ ही 1971 के भारत-पाक युद्ध की शुरुआत हो गई। 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की सेना के आत्मसमर्पण और बांग्लादेश के जन्म के साथ युद्ध का समापन हुआ।